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Last Updated: 2009/03/18
Summary of question
अल्लाह ने इतने ज़्यादा नबियों को क्यों भेजा है?
question
अल्लाह ने भेजे हुए अपने एक ही नबी की शरीअत को नहफूज़ क्यों नहीं कर लिया और उसकी शरिअत को पूरा करने के लिए दुसरा नबी क्यों भेजा?
Concise answer
अल्लाह का अपने बन्दों पर एक एहसान यह रहा है कि किसी भी ज़माने को रहनुमा और नबी के बग़ैर नहीं छोड़ा और पैग़म्बरों के भेजे जाने का सिलसिला किसी ज़माने में नहीं रुका और ज़मीन अल्लाह के नुमाइंदे और उसके दूत से कभी ख़ाली नहीं रही. धर्मों की बहुलता और अगले धर्मों की पूर्णता, वक्त और ज़माना गुजरने के साथ इंसानों की बौद्धिक शक्ति के  विकास के अनुसार होती है. या यूँ  कहा जाए कि पहले ज़माने के मनुष्य में  अस्तित्व के ऐतेबार से इतनी क्षमता नहीं थी कि वह एक व सम्पूर्ण दीन के सारे अनुदेशों को एक साथ ग्रहण करसके. इस लिये पूरा दीन (इस्लाम ) उन के लिए नहीं भेजा गया. अतः आवश्यकता  थी  कि धीरे धीरे दीन, अनुदेशों और नबियों को उसके लिए भेजा जाए ताकि उसकी बौद्धिक शक्ति का विकास हो और उस में सम्पूर्ण दीन को ग्रहण करने की क्षमता पैदा हो सके. मानवता और इंसानियत में पैग़म्बर ए अकरम स के ज़माने तक पहुंचने तक इस हद तक क्षमता पैदा होगई थी कि अल्लाह ने  उसके लिए अपना सम्पूर्ण और व्यापक दीन इस्लाम भेज दिया  और उसकी  सुरक्षा व हिफाज़त, स्पष्टीकरण और व्याख्या की ज़िम्मेदरी मासूम इमामों को सौंपी. फिर भी इस दीन की हिफाज़त के साधन मौजूद हैं और ये काम लोगों के दरमियान में से वह लोग करते हैं जो दीन की हक़ीक़त तक पहुँच जाते हैं और उसे दूसरों को भी पहचनवाते हैं .
इस बात से  पहले तो यह पता चलता है कि नए नबी को भेजने का उद्देश पिछले दीनो में पैदा होने वाली विकृतियों और खराबियों को दूर करना है. दूसरी बात यह कि दीन को विकृतियों और खराबियों से बचाने का काम इन्सान की प्रतिभा को परखे बग़ैर नहीं हो सकता है.
Detailed Answer
अल्ल्लाह का अपने बन्दों पर एक एहसान यह रहा है कि  उस ने किसी भी कौम किसी भी ज़माने में रहनुमा और मार्गदर्शक के बग़ैर  नहीं छोड़ा है. क्यों कि इन्सान एक ऐसा मुसाफिर है जो बहुत से स्थानों  को पीछे  छोड़ आया है और बहुत सी मंजिलें उसके सामनेआने वाली हैं. और  इलाही(ईश्वरीय) रहनुमाई और दिव्य मार्गदर्शन के बग़ैर उसे पता ही नहीं चल सकता कि किन  जगहों को वो पीछे छोड़ आया है और किस मंजिल की तरफ़ उसे जाना चाहिए. इसी ज़रूरत और  सवाल के जवाब में अल्लाह फरमाता है :
«وَ لَقَدْ بَعَثْنا فی‏ كُلِّ أُمَّةٍ رَسُولا»[1]
हमने हर उम्मत में कोई न कोई रसूल भेजा 
 
  « وَ إِنْ مِنْ أُمَّةٍ إِلاَّ خَلا فیها نَذیر»[2]
और कोई उम्मत (दुनिया में) ऐसी नहीं गुज़री कि उसके पास (हमारा) डराने वाला पैग़म्बर न आया हो 
« ثُمَّ أَرْسَلْنا رُسُلَنا تَتْرا»[3]
फिर हमने लगातार बहुत से पैग़म्बर भेजे 
कुरआन की आयातों और मासूमीन अ.स की हदीसों और बौद्धिक तर्कों  के अनुसार ज़मीन कभी भी खुदा की हुज्जत से न खाली रही है और न रह  सकती है. 
لَمْ یكُنِ الَّذینَ كَفَرُوا مِنْ أَهْلِ الْكِتابِ وَ الْمُشْرِكینَ مُنْفَكِّینَ حَتَّى تَأْتِیهُمُ الْبَینَةُ[4]

 
अहले किताब और मुशरिकों से जो लोग काफिर थे जब तक कि उनके पास खुली हुई दलीलें न पहुँचे वह (अपने कुफ्र से) बाज़ आने वाले न थे.
  दरअस्ल यह आयत धर्मशास्त्र के एक उसूल “काएद ए लुत्फ़ ” की तरफ़ इशारा कर रही है. और अल्लाह हर कौम में अपनी हुज्जत को तमाम (अंतिमेत्थम) करने के लिए स्पष्ट तर्क और  कारण बताता और भेजता है .[5] अगरचे सारे दैवीय धर्म अपनी सम्पूर्णता की क्षमता के हिसाब से बराबर नहीं थे लेकिन(समय और जगह  भिन्न होने के बावजूद) सभी दिव्य दूतों और नबियों के निमंत्रण का  मुख्य उद्देश एक ही था . उन सब ने इंसानों को खुदा की बंदगी करने  और शैतान और बुराइयों से दूर रहने का सन्देश दिया है:
وَ لَقَدْ بَعَثْنا فی‏ كُلِّ أُمَّةٍ رَسُولاً أَنِ اعْبُدُوا اللَّهَ وَ اجْتَنِبُوا الطَّاغُوت[6]
और हमने तो हर उम्मत में एक (न एक) रसूल इस बात के लिए ज़रुर भेजा कि लोगों ख़ुदा की इबादत करो और बुतों (की इबादत) से बचे रहो 

 
क्यों की जब तक  तौहीद की बुनियाद मज़बूत न हों  और बुराइयों को समाज से दूर न किया जाए उस समय तक किसी भी तरह का सुधारवादी कार्यक्रम नही चलाया जासकता है.
सवाल यह है कि अल्लाह ने पहले ही से एक ही नबी द्वारा एक समपूर्ण और मुकम्मल दीन या शरीअत क्यों नही भेजा और उसकी हिफ़ाज़त के लिए एक बाद एक दीन और नबी क्यों भेजता रहा?
इस के जवाब में यह कहना चाहिए कि माँ बाप अपने बच्चे की तरबियत करते समय सारी नैतिक और अखलाकी बातें एक साथ नहीं सिखाते और उनपर अमल करने को नहीं कहते.बल्कि उसको धीरे धीरे सिखाते हैं. और जितना सिखाते हैं उतना ही उसपर अमल करवाना चाहते हैं. और बच्चे के बड़ा और बालिग़ होते होते उसको सारी बातें सिखा देते हैं और चाहते हैं कि उसी के मुताबिक़ उस पर अमल करे.[7]   
यही बात इस जगह भी कही जा सकती है कि इंसानियत के शुरुआती दौर(हज़रत आदम अ.स के समय) में ही उस के लिए  मुकम्मल और सम्पूर्ण दीन व शरीअत का भेजना मुमकिन नहीं था क्यों की इन्सानियत कई दौरों से गुज़री है और हर ज़माने में उसका बौद्धिक विकास होता रहा है और जिस तरह उसकी सोच में विकास होता रहा उसकी बौद्धिक और मनोवैज्ञानिक ज़रूरतें भी बढती गयीं. और दूसरी तरफ़  से उसमें  दीन व शरीअत के बड़े और कठिन निर्देशों को लेने और उनका पालन करने की क़ाबलियत भी बढती गई.जबकि शुरू से ही उस में यह काबिलयत और ताक़त न थी. इसके अनुसार ज़रूरी था कि शुरुआत में उसके लिए सरल अनुदेश ,शिक्षायें और धर्मशास्त्र भेजे जाएँ ताकि वह उन्हें आसानी से समझ सके और उसमें अगली इस्लामी शिक्षायें  ग्रहण करने की योग्यता पैदा हों सके.
इसीलिए हज़रत आदम अ.स पहले नबी की हैसियत से इंसानों तक उनकी अंदरूनी क्षमताऔर काबिलियत के अनुसार अनुदेश पहुचाते थे.और बाद में आने वाले नबी और पैग़म्बर अपने समय के इंसानों की काबिलयत और बौध्धिक क्षमता के अनुसार बड़े और अधिक अनुदेश देते थे और इस तरह पहले वाली शरीअत को भी पूर्ण करते जाते थे यहाँ तक कि पैग़म्बर मुहम्मद स.अ का ज़माना आने तक एक मुकम्मल और सम्पूर्ण दीन और शरीअत इसानों के सामने पेश करदी गई. और इसके बाद अब कोई दीन व शरीअत नहीं आएगी. 
अगरचे अल्लाह के सारे नबीयों और पैग़म्बरों  का उद्देश एक ही था और सब एक ही अल्लाह की तरफ़ निमंत्र्ण देते थे लेकिन उनकी शरीअत की वैधता अगला नबी और नई शरीअत आने से पहले तक थी जिस के आने की सुचना पहली शरीअत में दी जा चुकी होती थी. और नए नबी और नई शरीअत के आ जाने के बाद पहले दीन के मानने वालों की ज़िम्मेदारी हो जाती थी के उस नए दीन और नबी  के अधीन होजाएं और उनकी बताई हुई बातों का पालन करें. 
इस तरह इस्लाम के आने के बाद पिछले सारे दीनों और शरीअतों की वैधता ख़त्म होजाती है और उनके मानने वालों पर इस्लाम के अनुदेशों और हुक्मों का पालन करना ज़रूरी होजाता है.
इन बातो से मालूम होता है कि पहले तो विभिन्न नबियों और दूतों को भेजने का उद्देश पिछले दीनों में पैदा होने वाली खराबियों को दूर करना है और दुसरे सम्पूर्ण दीन के आने के बाद और उसकी हक़ीक़त को ग्रहण करने वालों की मौजूदगी की वजह से वह बाक़ी व महफूज़ रहता है और उनके द्वारा ही दूसरों तक पहुँचता है.
अधिक जानकारी के लिए देखें:
१. शीर्षक: इस्लाम की वैधता के कारण और दलीलें, प्रश्न संख्या २७५ (वेब साईट ७३ ) 
२. शीर्षक: शिओं की वैधता, प्रश्न संख्या १५२२  (वेब साईट २०११ )
३. हादवी, तेहरानी, किताब मबानिये कलामीय इज्तेहाद , प ६१ और उसके बाद.
४.  हादवी, तेहरानी, किताब बावरहा व पुर्सिशहा , सरे खातिमयत , प ३३ 

 
 

[1] .नहल;३६.
[2] .फ़ातिर ;२४
[3] .मोमेनीन ;४४
[4] .बय्य्यिना;१.
[5] .देखें, जवादी आमुली,तफसीरे मौज़ुई  ए  कुर आन, ज६(सीर ए  पयामबरान दर कुरआन ); तफसीरे नमूना,ज२७, प२०२ .
[6] .नहल;३६
[7] . तफसीरे नमूना,ज११ , प २२१
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